सोमवार, 11 मई 2020

1947 ka deta ehsas

सन 1947 के ह्रदय विदारक द्रश्य की कुछ कुछ पूनरावृती ...मिलती जुलती सी तस्वीर शरीर के रोंगटे खडे कर देने के लिये पर्याप्त है | ह्रदय को कम्पकम्पा देने के लिए काफी है | महसूस करने के लिए यह काफी हैं कि हजारों की संख्या में सड़क पर , रेल की पटरियों पर निकल पडे , मजदूरों की किस कदर मजबूरियां रही होगी कि पाव के छाले भी बेबस थे .... उनके आगे बढते कदम को रोकने के लिये | कुछ कुछ शब्द का प्रयोग हमने इसलिये किया कि इस द्रश्य में मार काट , चीख पुकार बिल्कुल भी नही थी , बस चल रहे थे ....शांत थे पर ह्रदय में असीमित हलचल तो थी | .... उपरोक्त कथन में कुछ समानतायें तो है ही जो शासक की अयोग्यता को चीख चीख कर चौराहे की सलीब पर लटकाने के लिये बेताब है | दो साल की मासूम .....सड़क पर घिसटने के लिये मजबूर है .... माँ मुहं में पल्लू ठूँस कर ....सिसकने के लिये मजबूर है | पूरा हिंदुस्तान उनके रूदन से हिल रहा है | विदेशियों के कोरोना के दंश को वह निरपराध झेल रहा है | जिस तरह अंग्रेजों की लाठिय़ां खायी थी , उसी तरह आज भी अव्यवस्था की अद्रश्य लाठिय़ां खा खा कर रो रहा है | अमीरों के लिए प्लेन की व्यवस्था करने के बाद अब जा कर सरकार मजदूरों के लिए भी ट्रेन उपलब्ध करवा रही है , बस की भी व्यवस्था की जा रही है पर ऊट के मुहं में जीरा वाली कहावत ! कोई भी साधन उन तक समय पर नही पहुच पा रहा है और वे चल रहे है निर्विकार ....सड़क पर .... रेल की पटरियों पर | ईश्वर की आँखें भी नम | कही भूख से , कही थकान से तो कही रेल की पांतों पर सांसें थम रही हैं | यदि सरकार नमस्ते ट्रम्प के रास्ते गुजरात में कोरोना के शंखनाद से पहले इन व्यथित आत्माओं को उनके गांव भेज दिये जाने की व्यवस्था कर उन्हे राहत दे देती तो आज इस दुखद प्रसव के लिए सर्जरी न करनी पड़ती | गंभीर चूक तो हुई है इससे इंकार नही किया जा सकता है | आसान था यह उस वक़्त | मजदूरों के नियोक्ताओं को उनके लिए ई - टिकट बनवाने की बात कहनी थी | घर जाने का उनका नम्बर आने तक उन्हे वही फैक्टरी में ही क्वारेन्टाइन रहना था एवं 10-15 दिनों में क्रमवार उनके लिए ट्रेन व बस की व्यवस्था कर देनी थी साथ ही नितोक्ताओं से एक एक माह का वेतन बोनस के रुप में सफर खर्च के लिए दिलवा कर उनके चेहरे पर खुशियां ला कर लौक डाउन की घोषणा व्यवस्थित ढंग से कर देनी थी | इससे सरकार पर कोई आर्थिक बोझ भी नही पड़ता | लौक डाउन में भी शराब दुकानें खुलवाने का अविवेक पूर्ण निर्णय भी नही लेने पड़ते | सोशल डिस्टेन्श की धज्जिया भी नही उड़ती ओर नशे मे हिंदुस्तान भी न झुम रहा होता | समझ रहे है न !मैं क्या कहना चाह रहा हूँ ? dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">

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