ट्रैन एक लम्बी सांस छोडती थकी . थकी सी लखनऊ स्टेशन पर आ कर रुक चुकी थी |
मैं प्रतिक्षारत था कई दिनों से इसी अवस्मरनिय क्षण का उतरते मजबूत भारत निर्माता मजदूर का |
उनकी वेदना उनकी आँखों में झलक रही थी झूर्रीयों से भरी हड्डिया भी उत्साहित सी अपना समान समेट रही थी
यह भी एक न भुला देने वाला पल था . .पुलिस वाले भी उन पर फूल बरसा रहे थे कही कहीं थोड़ा रौब भी झाड रहे थे मैने महसूस किया ऐसे लोगों की हथेली में हसी ठिठोली की रेखायें क्षीण होती हैं | मात्रभूमि तक जल्द पहुच जाने की तड़प इनकी आँखो में साफ देखी जा सकती थी | दर असल मन एक विहंग है और पैत्रक घर मन को ठंडक dene वाला एक छांव | उडान चाहे कितनी भी ऊँची क्यों न हो , अंचिनहे आकाश में तो ठहरा नही जा सकता , एक घोसले की आवश्यकता तो पड़ती ही है | उसकी मजबूती के लिए तिनका - तिनका भी बुनना ही पड़ता है , यही तिनका उसे बुलाती है सिद्दत से , जब वह मुशकिल में होता हैं | इतिहास साक्षी है कि 1918 में भी ऐसी ही त्रासदी आयी थी | देश के लगभग 1करोड़ 80 लाख लोग काल कवलित हुए थे | उसे स्पेनिश फलू के नाम से जाना गया और यह वायरस पूरे दो वर्ष तक दुनिया में उत्पात मचाता रहा , तो क्या यह सरकार के संग्यान में नही था? कोई भी सरकार किसी को भी दो वर्ष तक बैठा कर नही खिला सकती तो समय रहते नमस्ते ट्रुम्प की जगह नमस्ते इन्डिया क्यों नही हुआ | क्या देश की व्यवस्था से पहले मध्य प्रदेश की सत्ता आवश्यक थी ? समय रहते मजदूरों के गांव गुलजार क्यो नही हुए ? प्रश्न तो सुलगते ही रहेंगें ,औरअब शराब भी गली गली बिकते ही रहेंगे पर इन सबसे अनजान एक न्नही सी गुडिया अपने गांव की पगडनडियों पर उछल उछल कर चल रही थी , पक्षियों की चहचहाहट मन को आनन्दित ही कर रही थी , अब साँझ हो चली थी| dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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