अभी योग की चर्चा हो रही हैं , इसमे किसी गवाह की आवश्यकता नहीं हैं कि योग पश्चात आप ह्रदय को , मन मस्तिष्क को प्रफुल्लित पाते हैं , आनन्दित पाते हैं , उत्साहित पाते हैं |
यहां ग्यान , विग्यान व मनोविग्यानं के अदभुत संयोग
को महसुस करने का अवसर प्राप्त होता हैं , मन कृष्णमय हो जाता हैं , दूर कहीं उनकी बांसुरी की धुन् मन को मोहने लगती हैं , मन निर्मल हो जाता हैं |
ठीक इसके विपरित परिस्थितियों में भी हम कुछ ऐसा ही महसुस करते हैं | जब हम किसी अर्थी को कंधा देते हैं , वे भले ही किसी जाति , धर्म के हों पर उस क्षण सबके मन में एक ही भावना उद्देलित रहती हैं कि यह संसार मिथ्या हैं सब निरर्थक है |
छल कपट बईमानी का कोई ओचित्य नही है | अर्जित धन सब माटी है , चिंतन ईश्वरीय साधना की ओर मुडने लगता है | मन कृष्णमय हो जाता है पर यह कुछ क्षण का मेहमान होता है |
कार्य स्थल पर पुन: लोग , लालसा की ललक में मन को तृष्णामय कर किसी बेबस से बिना कुछ अर्जित किये फाइल न जाने क्यूँ अंगद की पांव की तरह एक टेबिल को जकड लेती है और मन मृत्यू और योग की सत्यता को नकारते हुए उसकी निरर्थक परिभाषा को गढने लगता है , भावनायें अट्टालिकाओ में परीवर्तित होती रहती है |
मन अध्यात्म को पाखण्ड का अधिष्ठात्री घोषित कर देता है कि अचानक ही कोई अपना लाइलाज बीमारी से ग्रसित हो कर खास अर्जित धन लूट कर ले जाता है य़ा पुत्र मोह में उनके जीवन को नया आयाम देने में पूरी सम्पदा स्वाहा हो जाती है और परिस्थितियां व्रधाश्रम की राह दिखाती सी प्रतीत होती हैं |
हताश मन पुन: कृष्णमय हो जाता हैं , अब अध्यात्म की बातें सच्ची लगने लगती हैं ,मृत्यू शाश्वत दिखने लगती है
अशांत मन में योग शांति के बीज बोता ह्रदय को पुन: कृष्णमय करता हैं
क्या इसे हम स्थाईत्व नहीं दे सकते ? सरकार की ज़न कल्याणकारी योजनाओ को गति देने में क्या कृष्णमय मनभावना को उसका आधार नही बनाया जा सकता हैं?
यदि 'हाँ' तो अभी देर कहाँ हुई है , कृष्ण तो हमें पुकार ही रहे हैं, उनकी मीठी बांसुरी की धुन में खो जाने के लिए |
राधा भी कही आसपास ही है , रासलीला का अवसर ढूंढ रही है , कृष्णमय हो जाने के लिए |
लेखक डा. वासु देव यादव
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