रविवार, 23 अगस्त 2020

Padam shree mukutdhar Pandey ji

 *पदम श्री मुकुटधर पाण्डेय जी पर शोध पत्र* -----पगडंडियों मे धूप की तपन गांव के जिंदा होने का बोध कवि हृदय में भारत के स्पंदन का प्रमाण देती है। छायावादी काव्य के जनक के समक्ष यदि कलम नतमस्तक है तो छायावादी आलेख/शोध के माध्यम से उन्हें सम्मान देना उनके प्रति सच्चे श्रद्धा सुमन अर्पित करने का उचित दृष्टिकोण निशचित रूप से सर्वमान्य होगा। उनके छायावादी काव्य का उदगम स्थली"कुररी के प्रति" मे विदेशी विहग की पीड़ा को आत्मसात कर बाल्यकाल मे पितृवियोग के दंश को महसूस कर खुद के मन के भटकाव को शायद विदेशी विहंग मे चित्रित करने का एक सफल प्रयास कर अपने मन को सान्तवना देने के प्रयत्न मे.....विहंग को उनकी मंजिल चिन्हित करने को कहते है यानी अपरोक्ष रुप से खुद को ही ताकीद करते है की' मन मरीचिका तू अब ठहर जरा,छाव  मे सुस्ता ले और एक लक्ष्य को चिन्हित कर छायावादी वट वृक्ष के तले पथिल को विश्राम दे।'

पदम श्री पं मुकुटधर पांडेय की उनकी पदम श्री तक की अनपरत यात्रा मे किसान के विशाल आस्तित्व मे उनकी शहर के प्रति वितृष्णा,धान की बालियों मे बसती किसान की आत्मा, विहंग की विह्वलता मे उनके मन का विचलित हो जाना, किसान की मन:स्थिति की सरलता को इतनी सादगी से पाठक के मन मस्तिष्क मे रोपित कर देना एवं "कौन है कवि मे" समाज के धड़कन मे कवि मन की उपस्थिति को स्पष्टत: साबित कर देना साहित्य के प्रति उनकी गहरी आस्था को प्रतिपादित करती है।

आस्था जो विज्ञान की समझ से परे है।इसे हम ऐसे समझ सकते है कि विज्ञान अभी आस्था के अभ्युदय स्थल तक नही पहुची है किंतु दिल को सुकून हे कि विज्ञान सतत इस ओर अग्रसर है।

 आस्था विज्ञान के सामानांतर चलने वाली विकिरण की वह प्रक्रिया है जिससे आप सीधे यानी कवि मन अपनी आराध्य 'माँ सरस्वती' से संवाद स्थापित करने मे खुद को सफल पाते है।                  

आस्था लेशमात्र भी संशय नही माँगती है। क्षप्णिक संशय चाहे वह माइको सेकंड का ही क्यों न हो, आस्था की विकिरण वही बाधित हो जाती है औऱ माँ सरस्वती से प्रत्यक्ष संवाद की अनुभूतिया अवरुद्ध हो जाती हैं।

पं मुकुटधर पांडेय जी की साहित्य के प्रति, छायावाद के प्रति उनकी आस्था दिन प्रतिदिन समयांतराल मे अटूट होती चली गयी, उन्हें अपनी हर रचना मे पिता की वात्सल्यपूर्ण भाव भंगिमाएं स्पष्ट महसूस होती गयी और वे रसास्वादन के अथाह समुद्र की गहराइयो मे आकंठ तक डूबते चले गये पितृ प्रेम मे अनवरत चलती उनकी यह अनन्त यात्रा अनंतत: एक दिन पदम श्री के रुप मे फलित हुई।

 पं मुकुटधर पांडेय जी की रचना एक भगीरथी प्रयास के फलीभूत, प्रवाहित गंगा की पवित्र धारा है जो अपनी विधा रचती है और स्वयं उसे स्थापित करने का माददा भी रखती है और अपनी संस्कृति में बंधे विश्व को भी प्रभावित करने की क्षमता रखती है। वह किसी का अनुकरण नहीं करती है बल्कि अपनी डगर खुद तलाशती है। उनका सब कुछ अपना है वह आहिस्ता--आहिस्ता  विश्व साहित्य की ओर अपना कदम बढ़ाती है पर अपनी जमीन नही छोड़ती है और पॉव--पॉव चल नजर आसमान में केंद्रित कर देती है। वे लोक परंम्परा, विधि, रीति--निति वैचारिक गति में भारतीय जीवन के उत्सर्ग की बुनियाद है इस विश्वास को दृढ़ करती है।

पांडेय जी अपनी रचनाओं के विच्छेदन में पाठकों के भावलोक व विचारलोक का अनुसंधान करते है फिर सप्ततारे सी आकर्षक व्यवस्थित कतार में उनकी शल्य क्रिया करते है।पांडेय जी की स्वतंत्र साहित्यक क्षमता है जिससे आज पूरा साहित्य जगत उनके सामने नतमस्तक है।छायावादी लेखन से सांस्कृतिक पर्यावरण की निष्कलुष उपस्थितिक धरा के प्रति उनकी सशक्त सैद्धातिनक यात्रा में एक नींव के पत्थर का काम करती है। शाब्दिक आनुष्ठान तो जैसे उनकी रंग--रंग  में समाया हुआ है। अभ्योतर शुचिता बाह्य शुचिता से उत्तम है ।इनकी रचनाओं में तीर्थ आध्यात्मिकता का आभास तो बरबस ही मन को आलोकित सा कर कर देता है।प्रत्येक शब्द के शाब्दिक अर्थ उसके परिवेश की अपनी समझ आती है किन्तु मुकुटधर जी के शब्द निष्कलंक दूधिया रंग के साथ उनके अन्त:करण के महानिवास मे विस्तारिक वैचारिक क्रान्ति की मशाल लिए मानो वात्सल्य का पुट देती जनमानस को हिलोरे देती सजग सी करती प्रतीत होती है।यहाँ उनका आग्रह नही बल्कि रचना के प्रति उनकी उदारता सारे दर्शन मतों को एकसूत्र में अक्षुणता बनाए रखने में सफल होकर विरोधी को चकित ही करती है।

छायावादी लेख को यह श्रेय  साहित्य समाज ने ही प्रदत्त किया है कि आज विषाक्त़ता से मुक्त वह शुद्ध हिन्दुस्तानी धरा पर स्थित होकर अपनी अस्मिता की बात करता है।उनकी छायावादी रचनाओं में सृष्टि का स्वरुप जिस प्रमाणिकता के साथ मन को आंदोलित करता है वह साहित्य के नये स्वाद का अनुभव देता है और आश्चर्य की इसमें सभी एकमत है। यही कारण है कि जीवन के संघर्ष के थकान के उपरांत भी इनकी रचना ठंड़ी छाँव का आभास देती अपने छाँव तले साहित्यिक पथिक को थोड़ा सुस्ताने का अवसर देती है और पथिक भी इनके आकर्षण मे थोड़ा सुस्ताने का लोभ संवरण नही कर पाता है।

साहित्य के दायित्य निर्वाह में मुकुटधर जी किंचित मात्र भी उहापोह की स्थिति में नही रहे। अपने लेखन कर्म में वह भीष्म पितामह की तरह अडिग व युधिष्ठिर की तरह अपने अग्निपथ पर अटल रहे। 1918से छायावादी शैली लोकप्रिय हो चुकी थी। इस शैली के सम्बन्ध में जब 1920 में "श्री शारदा"' नामक पत्रिका जो जबलपुर से निकलती थी, में लेखमाला के रुप में प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तब इन पर राष्ट्व्यापी  चिंतन, मनन, अध्य्यन और अंत में विचार विमर्श के उपरान्त इस शैली ने अपना सम्मानजनक स्थान पाया।अपने नाम के अनुरुप ये छायावाद के मुकुट के रुप में आज भी साहित्यकारों एवं जनमानक के हृदय में विराजमान है।यह इनकी चिरकालिक अक्षुण्ण  अवस्था है।कैसे यह शैली द्विवेदी युग के बाद अंकुरित हुई।साहित्य के जानकारों के अनुसार 1918 में , *_जयशंकर* जी  द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह "_*झरना*" ही प्रथम छायावादी संग्रह था। इसके पश्चात ही हिन्दि पद्य शैली में बदलाव परिलक्षित होने लगे थे।इस शैली के आधार स्तम्भ  ,जयशंकर प्रसाद,  सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा था। मान्यता है कि इस शैली को परिभाषित करने, इसे निश्चित दिशा देने व इसके नामकरण का श्रेय पं.मुकुटधर पांडेय को जाता है।'श्री शारदा' में प्रकाशित इनकी लेखमाला ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जिसमें इन्होंने अपने लेखमाला का शीर्षक ही'छायावाद रख दिया  था। प्रेम के पर्याय के रुप में स्वच्छतावाद को आश्चरवाद के रुप में स्थापित कर अनुभव को चारमत्कर्ष तक ले जाना और मानवतावाद, सौन्दर्यवाद, रहस्यवाद, प्रेम की अकुलाहट की निराशवादिता, मर्मभेदी करुणावादिता की ध्वनि जो ममत्व, वात्सल्य को समेटती करुणामय होते हुए भी मधुर है। यह जनसाधारण की समझ से बाहर होकर पतली गली से निकल लेती है।

ऐसी बात नही कि छायावादी को विरोध न झेलना पड़ा हो ,जिनके मूल में निराला व उनके अनुयायी थे जो इनका अंग भंग कर " छाया "शब्द का लाभ उठाकर छायावाद की छीछालेदारी कर रहे थे पं. ईश्वरी शरण पाण्डेय जी इनकी लेखमाला के संदर्भ में कहते है कि यह हिन्दि साहित्य की छरोहर है इस संदर्भ में उनकी अन्तरात्मा से बस यही शब्द अनवरत रुप से मुखरित होते रहते थे ------  *"न चाह मूझे मान की, न सम्मान की, न चाह मुझे अभिमान की, अंजलि भर की ही तो मेरी इच्छा है कि बची रहे छायावाद के स्वाभिमान की"*  और अपने प्रयास से इसमें सफल भी रहे जो आज वटवृक्ष बनकर साहित्यकारों को ठंडक का एहसास करवाता हुआ उनके शरण में गये प्रायः हर कवि को यह एक मुकाम देने का प्रयास करता है।

पं. मुकुटधर पाण्डेय जी सृजनशीलता अपने पिता श्री स्व. चिंतामणि पाण्डेय व दादा श्री स्व.सालिगराम पाण्डे जी से धरोहर के रुप में मिली थी जिसे ये अवने अग्रज के सानिध्य में बड़ी तन्मयता से आगे बढ़ा रहे थे। वहीं माता श्रीमती देवहुति के आध्यात्मिक संस्कार इन्हें इनके पथ निरन्तर संबल प्रदान कर रहे थे।

90 वर्ष की आयु में उनका निधन6 नवम्बर को रायपुर में लम्बी बीमारी के बाद हुआ। उन्हीं दिनों के किसी क्षण में अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा था कि *'हे महानदी तू अपनी ममतामयी गोद में मुझको अंतिम विश्राम देना, तब मैं मृत्यु पर्व का भरपूर सुख लुटूँगा*।

पं. मुकुटधर पांडेय जी ने 1915 में प्रयाग विश्वविद्यालय से प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण कर महाविद्यालय में दाखिला ले तो लिया था पर महामारी फैलने की परिस्थितियों के कारण वे आगे नही पढ़ पाये किन्तु हिन्दि, अरबी, बंगला, उड़िया का चिंतन मनन, अध्ययन घर पर ही रह कर किया और एक सम्मानजनक मुकाम हासिल किया। उनकी पहली कविता संग्रह थी *"पूजा के फूल"*जो आगरा से स्वदेश बांधव में 1919 में प्रकाशित हुई थी। हिंदी गद्य के साथ--साथ हिंदी पद्य में भी इनकी पकड़ मजबूत थी इसी से प्रभावित होकर पं. रवि शंकर विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें  डी. लिट की उपाधि भी प्रदान की गयी थी।इनके काव्य में करुणाजनित प्रकृति सौंदर्य के मानवीय प्रेम में गीतात्मकता की प्राधानता रही है जो छायावाद के कल्पना वैभव  की प्रथम भव्य द्वार के रुप में सुशोभित है।

पं. मुकुटधर पांडेय जी का जन्म बिलासपुर जिले के घनी अमराइयों में झाँकते ग्राम बालपुर में सन् 1895 में हुआ था जहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त की अनुपम छटा शायद शैशवकाल से ही उन्हें साहित्य की ओर प्रेरित करती रही। द्विवेदी युग में अनुवादक के रुप में उन्होंने अपनी छवि बनाई थी। विशेषकर बंग्ला रचनाएँ। *"कुररी के प्रति'* के बाद *'विश्वबोध'* नाम से उनकी कविता ने उनकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए इससे कोई इंकार नही कर सकता। अवसाद के क्षणो में भी वे ईश्वर के चरण प्रसाद को महसूस करते हुए लिखते है कि *"यह मेरा आत्यमिक अवसाद?* *हुआ मुझे तब चरण प्रसाद। यह प्रभाव कितना अविवाद? आती ठीक नही है याद।"* कविता के सन्दर्भ में उनके सटीक वक़्तव्य तो और कोई दे नही सकता था।उनके शब्दों में कविता नश्वर जीवन का उल्लास।। मृत्यु को कितनी सरलता से उन्होंने उल्लास से अलंकृत कर दिया । यह चमत्कार तो उनकी ही लेखनी कर सकती है । छायावादी लेखन ने हिन्दी में खड़ी बोली कविता को पूर्णरुप से स्थापित कर दिया।इसके बाद से ही ब्रज भाषा हिन्दी काव्य धारा से बाहर हो गई थी।इसने हिन्दी को नये--नये वाक्यों से सुशोभित किया, नये तरीके से साहित्य को प्रतिबिंबित किया, जब इनके छायावाद का कोई साहित्यकार गम्भीरता से  अवलोकन करता है तो उनके दिल से एक ही बात निकलती है कि *भावनाएँ आपकी बेमोल है, स्याही की लकीरें अनमोल है, बसे रहें जनमानस के दिल में, साहित्य के लिए नही आप शेष है।* यह उनके स्वतंत्र सोच का ही प्रतिफल था कि इसे साहित्यिक खड़ी बोली का स्वर्णयुग कहा जाने लगा।

छायावादी कविता द्वेवेदी युग की नीरस, उपदेशात्मक कविता का विद्रोह करते हुए कल्पना प्रधान, भावनात्मक कविताएँ रची गयी। इनकी कविता नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि' से स्पष्टत: प्रभावित सी लगती थी, साथ ही इनकी भावनायें प्राचीन संस्कृत साहित्य, मध्यकालीन हिन्दी साहित्य जिसमें बौध्द दर्शन व सूफी दर्शन के पुट को साफ--साफ महसूस1किया जा सकता है।

गीत काव्य के बाद छायावाद में भी महाकाव्य का अभ्युदय हुआ। प्रसाद जी की कामायनी व पंत जी की लोकायतन इनका प्रमाण है।यदि हम उनके आलोचको पर दृष्टि डालें तो मैथिली शरण गुप्त जी ने खड़ी बोली काव्य को कल्पना की पराकाष्ठा कहा है तो *नंद दुलारे बाजपेयी जी* ने प्रकृति के सूक्ष्म व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का मान उनके विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिये थी। *नामवर सिंह* लिखते है कि छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रुढ़ियों से मुक्ति चाहता था ओर दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से किन्तु इसे मेरी व्यक्तिगत राय में आलोचना की श्रेणी में रखना गलत होगा।अपनी सांस्कृतिक परंपरा को समेटे हुए अंतर्राष्ट्रीय होने का यह सुखद1अनुभव काश आज मुकुटधर पांडेय जी साक्षात स्वमेव अपने रोम--रोम में एहसास कर पुलकित हो पाते तो निश्चित रुप से उनका आल्हादित मन मयूर उनकी सांस्कृतिक माँ के चारणों में लोट--पोट हो जाता। अपने अग्रजों के कदम कदम पर उनका स्नेहिल स्वावलंबन की कृतज्ञता प्रकट करने उनके अंग लिपट कर उनकी छाती को अपने खुशी के आँसुओं से सराबोर कर देता, खुशी से विह्वल मन पिताजी की स्नेही छाया महसूस कर छायावाद के रसस्वादन में पुनः नये कीर्तिमान रचने को दृड संकल्पित हो जाता, पर आज उनके गाँव की अमराइयों में निस्तब्धता छायी है, हवा मनो कहीं छुप कर खड़ी है, वातावरण एकदम शांत है मानो एहसास करा रही हो कि *हे कलम तू अपनी लेखनी के आवेग को थोड़ा विराम दे और धरातल पर लौट कर पंडित जी के संदर्भ में कुछ अन्य साथर्क बातें उनके प्रशंसकों से साझा कर।*  अपनी कलम होने की गौरव1गाथा को महिमा मंडित कर ले।जीवन के संघर्स के साथ--साथ सत्य का दामन अपनी मुठ्ठी में जकड़ कर रखना। शाब्दिक अनुष्ठान के  यज्ञ की पूर्णाहुति कर समाज की कलुषित धारा को गंगा की पवित्र धारा मे परिवर्तित करने का साहस दिया और  'छायावादी' का परचम लहरा कर खड़ी बोलि में जन--जन की अँगुलियों में थिरकन पैदा कर दे ताकि वे तुम्हारी संगत में रह कर छायावादी रचना की एक नई अमराईयां अंकुरित करने का जज्बा नूतन साहित्यकारों में पैदा कर सकें।


        

                                                   समाप्त


Copyright

नोट  --- यह मेरा मौलिक शोध पत्र है।                             डॉ. वासुदेव यादव

    (आयुर्वेदज्ञ)

ग्राम -- डोमनारा  , पो. फरकानारा

                                                                     तहसील-- खरसिया, जिला--रायगढ़

                                                                                  पिन -- 496665

                                                                                      छत्तीसगढ़

                                                                             मो. न.   8815041022

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

धर्म निरपेक्षता की ईमरती

 धर्म  निरपेक्षता  की  ईमरती 


धर्म  निरपेक्षता   के  शब्द  को पक्ष  विपक्ष  के  द्वारा  न  जाने .कितनी  बार चबाया  गया  और  भविष्य  में  न  जाने  कितनी  बार और  चबाया  जायेगा |


आने  वाले  दिनों  में 'जाकी  रही भावना  जैसी'  के  अंतर्गत  राजनीतिग्य इसे   अपनी सुविधानुसार इसका  आकार  प्रकार  बतायेंगे एवं   परिभाषित  करेंगे , कोई  इमरती  कहेगा  तो .कोई  जलेबी ,राजनीति ज्यादा  काली  हो  गयी  तो  वे  इसे  खोये  की  जलेबी  घोषित  कर   देंगे   पर   इसे चबाना  नहीं  छोडेंगे |


जब 13 दिन  की  बाजपेयी  सरकार  विश्वास  मत  हासिल  करने  में  विफल  हो  गयी  थी   तब  सेकुलर  रहे   राम  विलास  पासवान  जी ने धर्म  निरपेक्ष  राजनीति की  बड़ी  सुन्दर   जलेबी  बनायी  थी , उन्होने  कहा  था  कि  बाबर  केवल  40 मुसलमान  ले  कर  आया  था | उसकी  संख्या अाज   करोडों  में  पहुँच  गयी है  क्यों कि  आप  ऊँची   जाति   वालों  ने  हमे  मंदिरों  मे  जाने  नहीं  दिया  लेकिन  मस्जिदों  के  दरवाजे  के  दरवाजे  खुले  थे  तो  हम  वहीं  चले  गये |


 हिन्दुओं  की  अस्मिता  पर  कितनी  बड़ी   चोट  दे  दी  थी  उन्होने  , ऐसे  में  ईसाई  धर्म  प्रवर्तक  दलित  हिन्दुओं  पर  कैसे  न  लार  टपकाते , देखते  देखते  ही  हिन्दुओं  का  एक  बडा  तबका  खाली  हो  गया  था  जो  अाज  भी  किसी  न  किसी  रुप  में  जारी  है |  


वर्तमान  में स्थिति  ऐसी   हैं  कि  दलित  हिन्दू   ही अब   हिन्दू विचारधारा  और मूर्ति   पूजा का     खुल  कर   विरोध  कर  रहें  हैं  |


ऐसा  नहीं  हैं  कि  ऐसी  स्थिति के  लिए   कोई  एक  दोषी  हैं , ऐसी  स्थिति  के  लिए  पक्ष  विपक्ष  दोनो  को  दोषी  करार  दिया  जा  सकता  हैं,  यानि   राजनीति की  इमरती  का  स्वाद  लेने के  प्रयास  में  दोनो  ने ही   अपने  अपने  हित  में   इसे आकार  देने  की  कोशिश  की जिस से  यह  स्थिति  उत्पन  हुई  हैं  इससे  शायद  ही  इंकार  किया  जा  सकता  हैं |


राम  मंदिर  बन  रहा  हैं ,क्या  मर्यादा पुरूषोत्तम   के  पथ  पर  चलने  की  अनुमति  इन्हें  भी  मिलेगी  , यह  एक  यक्ष  प्रश्न  हैं |


डा . वासु देव यादव , रायगढ

मुंशी प्रेम चंद जी

 प्रेम  चन्द  मुंशी  जी  के  सम्मान में    एक  लघु  समीक्षा ---

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 धान  की  बालियों  में  सांस  लेती  मुंशी प्रेम  चंद  जी  की  कहानियां  पगडन्डियों   पर  ताय  ताय  चलती , एक  मोड  पर  अंगड़ाई  सी  लेती  , खेत  की  मेड़  पर  आ  कर  एक  पल  को  ठहर  सी  ज़ाती  हैं .......मानो  फेफड़ों  में   खेतों  की   सौंधी  महक को  एकदम  से  भर  लेना  चाहती  हो ..  फिर  छपाक  से  खेतों  में  कुद  ज़ाती  हैं |


उनके  अप्रतिम  रुप  को  आत्मसात  करने  के  लिए  किसान  भी  भावविहल  हो  उठता  हैं|


 हलधर के   मन  में  छिपे  दर्द  को उकेरने  में  ब्यस्त   खेतों   में चलते उनके   कलम  को  देख  कर   किसान  भी  अपने  अस्तित्व को  देश  की  धुरी  में  महसुस  करता  हैं |


उनकी  रचनाओं  का  जादू  अाज  भी प्रासंगिक हैं   जैसे  एक  बालक  को   उसकी  मनपसंद  टाफी  मिल  जाए  तो  वह  खिलखिला  उठता  हैं  , वैसे  ही  अाज  भी  उनकी   रचनायें   सरसों  के  खेत  में  पीली  चादर  बिछा  कर   किसानों  का  स्वागत  करते  यत्र  तत्र  सर्वत्र  दिख  जायेंगी |


 by Dr vasu Dev Yadav 

raigarh (c.g)

सोमवार, 22 जून 2020

Pratykshm Kim pramanam

नास्तिकों के लिये मध्यप्रदेश में आगर मालवा नाम का जिला के वकील जय  नारायण शर्मा के जीवन  में घटित सत्य घटना ग्यान चक्षु खोलने के लिए काफी है |

       जैसा मैने पढा अक्षरस: उसी स्वरूप  में प्रस्तुत  |

मध्यप्रदेश में आगर मालवा नाम का जिला हैं। वहाँ के न्यायालय में सन 1932 ई. में jay narayan शर्मा नाम के वकील थे। उन्हें लोग आदर से बापजी कहते थे। वकील साहब बड़े ही धार्मिक स्वभाव के थे और रोज प्रातःकाल उठकर स्नान करने के बाद स्थानीय बैजनाथ मन्दिर में जाकर बड़ी देर तक पूजा व ध्यान करते थे। इसके बाद वे वहीं से सीधे कचहरी जाते थे।

घटना के दिन बापजी का मन ध्यान में इतना लीन हो गया कि उन्हें समय का कोई ध्यान ही नहीं रहा। जब उनका ध्यान टूटा तब वे यह देखकर सन्न रह गये कि दिन के तीन बज गये थे। वे परेशान हो गये क्योंकि उस दिन उनका एक जरूरी केस बहस में लगा था और सम्बन्धित जज बहुत ही कठोर स्वभाव का था। इस बात की पूरी सम्भावना थी कि उनके मुवक्किल का नुकसान हो गया हो। ये बातें सोचते हुए बापजी न्यायालय पहुँचे और जज साहब से मिलकर निवेदन किया कि यदि उस केस में निर्णय न हुआ हो तो बहस के लिए अगली तारीख दे दें।

जज साहब ने आश्चर्य से कहा ”यह क्या कह रहे हैं। सुबह आपने इतनी अच्छी बहस की। मैंने आपके पक्ष में निर्णय भी दे दिया और अब आप बहस के लिए समय ले रहे हैं।“

जब बापजी ने कहा कि मैं तो था ही नहीं तब जजसाहब ने फाइल मँगवाकर उन्हें दिखायी। वे देखकर सन्न रह गये कि उनके हस्ताक्षर भी उस फाइल पर बने थे। न्यायालय के कर्मचारियों, साथी वकीलों और स्वयं मुवक्किल ने भी बताया कि आप सुबह सुबह ही न्यायालय आ गये थे और अभी थोड़ी देर पहले ही आप यहाँ से निकले हैं।

बापजी की समझ में आ गया कि उनके रूप में कौन आया था। उन्होंने उसी दिन संन्यास ले लिया और फिर कभी न्यायालय या अपने घर नहीं आये।

इस घटना की चर्चा अभी भी आगर मालवा के निवासियों और विशेष रूप से वकीलों तथा न्यायालय से सम्बन्ध रखनेवाले लोगों में होती है। न्यायालय परिसर में बापजी की मूर्ति स्थापित की गयी है। न्यायालय के उस कक्ष में बापजी का चित्र अभी भी लगा हुआ है जिसमें कभी भगवान बापजी का वेश धरकर आये थे। यही नहीं लोग उस फाइल की प्रतिलिपि कराकर ले जाते हैं जिसमें बापजी के रूप मे आये भगवान ने हस्ताक्षर किये थे और उसकी पूजा करते हैं।

          डा. वासु देव यादव

Kinnar ki parmarth katha

लघु  कथा 

         किन्नर की परमार्थ कथा 

        लौक डाउन में प्रसव  वेदना से तड़पती वह श्रमिक महिला अपनी ही बनायी सड़क को मापने में असमर्थ  , एक -एक कदम जैसे सौ - सौ मन के भारी  पत्थर ...... अंतत: वह हार गयी और खुद को गिरने से बचाती हुई वह सड़क पर पसरने ही वाली थी कि उसके बगल से उसे अनदेखा कर निकलती महिला को धक्का दे कर एक किन्नर ने दौड़ कर उसे सहारा दे दिया |
      1947 की आजादी के बाद आज भारत पुन: चलचित्र अजायब घर की भांति आदिमानव के नग्न स्वरूप को साकार करती , प्रसव वेदना से तड़पती महिला पर व्यंग्यात्मक द्रष्टिपात करती अपने गंतव्य की ओर बढ़ती चलती जा रही थी | 
      चलते - चलते प्रसव प्रक्रिया के दीदार की उत्सुकता से एक व्यक्ति ठिठका ही था कि किन्नर ने उसे झिड़क दिया - हट छिछोरे , मर खायेगा तू मेरी , हट एक किनारे ....| और उस महिला को बमुशकिल  एक झाडी के किनारे ले जा कर अपनी एक मात्र बची साडी के टुकडे कर उसके प्रसव में सहयोग कर  उस महिला को माँ का सुख देने में सफल रही , इसी बीच कुछ और किन्नर आ गयी थी और उन्होने एक सुरक्षा घेरा बना लिया था | आश्चर्य नवजात चुप था , उसकी आँखें खुली थी , मानो कोरोना से निडर  थी , किन्नर को अपलक निहार रही थी , शायद आभार प्रकट कर  रही थी उसे जीवन गीत देने के लिए | नितांत अकेली माँ अभी भी  बेहोश थी |
                   
                      लघु कथाकार  डा. वासु देव यादव

Aatmleen

जब  भी  कहीं कृष्ण  प्रवचन  चल  रहा  होता  हैं  तो वहां  की  हवायें  पूरे  क्षेत्र  को  कृष्णमय  कर  देती  हैं  मन  न  जाने  क्यों  उल्लासित  रहता  हैं  ज़िसकी  बारिकियों  को  परिभाषित  करना  मनुष्य  मन  की  कल्पनाओं  से  परे  हैं ऐसे  में  किसी  कथा  वाचक  का  एक  ही  शब्द  श्रोता  की  श्रद्धा  को  दिग्भ्रमित करने  के  लिए  प्रयाप्त  हैं 

अभी  विगत  दिनो विश्व  प्रसिद्ध कथा  वाचक मोरारी बापू  जी  ने  
अपने  प्रवचन  में  श्री  कृष्ण  व  बलराम  की के  संदर्भ  में  अपनी  निजी  ब्याख्या श्रोताओं पर थोपनी  चाही किंतु कुछ जागरुक श्रोताओ के कारण उन्हे कानहा विचार मंच की मांग पर द्वारिकाधीश के दर्शन कर  भक्तों से माफी मांगनी पड़ी |

      यह वाकया इस बात को साबित करता है कि कुछ विद्वान अपनी विद्यता की आड़ में भक्तों पर उनके आराध्य  की छवि अपने मतानुसार  गढना  चाहते हैं | 

         अत: यहां आवश्यक हो जाता है कि जब भी  आप कृष्ण  कथा य़ा  अन्य के प्रवचन का पुण्य ले रहे हों तो   पूर्ण भक्तीमय  होने के उपरांत ही आप प्रवचनकर्ता की बारीक से बारीक गलतियों  को पकड़ पाने में सफल हो कर  भागवत गीता य़ा अन्य  पौरणिक ग्रंथ  का मान  बनाये  रखने  मॅ  अपनी  अहम  भुमिका निभायेँगे और  यह  कर्तब्य  हर  हिन्दू  का  हैं  चाहे  वह  किसी  भी  जाति  का  हो  किसी  भी  वर्ण  का  हो 
और  इस  तरह   अंधविश्वास  को  तोडने की  दिशा  में  यह  एक  महत्वपूर्ण  कदम  माना  जायेगा

            Dr. Vasu deo yadav

Yog se anand prapti

अभी  योग  की  चर्चा  हो  रही  हैं , इसमे  किसी  गवाह  की  आवश्यकता  नहीं  हैं  कि  योग  पश्चात  आप  ह्रदय को  , मन  मस्तिष्क  को प्रफुल्लित  पाते  हैं  , आनन्दित  पाते  हैं  , उत्साहित  पाते  हैं |

 यहां  ग्यान ,  विग्यान   व मनोविग्यानं के  अदभुत संयोग 
को  महसुस करने  का  अवसर  प्राप्त  होता  हैं , मन  कृष्णमय  हो  जाता  हैं , दूर  कहीं  उनकी  बांसुरी  की  धुन्  मन  को  मोहने  लगती  हैं , मन  निर्मल  हो  जाता  हैं  | 

ठीक  इसके  विपरित  परिस्थितियों  में भी  हम  कुछ  ऐसा  ही  महसुस  करते  हैं  | जब  हम  किसी  अर्थी  को  कंधा  देते  हैं , वे  भले  ही  किसी  जाति , धर्म  के  हों  पर  उस  क्षण सबके  मन  में  एक  ही  भावना  उद्देलित  रहती  हैं  कि यह   संसार  मिथ्या  हैं  सब  निरर्थक  है |

छल  कपट  बईमानी  का  कोई ओचित्य  नही  है | अर्जित धन सब माटी है , चिंतन ईश्वरीय साधना की ओर मुडने लगता है  | मन  कृष्णमय  हो जाता है  पर यह कुछ क्षण का मेहमान होता है |

 कार्य स्थल पर पुन: लोग , लालसा  की ललक में मन को तृष्णामय कर किसी बेबस से बिना कुछ अर्जित किये फाइल न जाने  क्यूँ  अंगद की पांव की तरह एक टेबिल को जकड लेती है  और मन मृत्यू और योग की सत्यता को  नकारते हुए उसकी  निरर्थक परिभाषा को गढने लगता है , भावनायें अट्टालिकाओ में परीवर्तित होती रहती है | 

मन अध्यात्म को पाखण्ड का अधिष्ठात्री घोषित कर  देता है  कि अचानक ही कोई अपना लाइलाज बीमारी से ग्रसित हो कर खास अर्जित धन लूट कर ले जाता है  य़ा पुत्र मोह में उनके जीवन को नया आयाम  देने में पूरी सम्पदा स्वाहा हो जाती है  और परिस्थितियां व्रधाश्रम  की राह दिखाती  सी प्रतीत होती हैं |

 हताश मन पुन: कृष्णमय हो जाता हैं , अब अध्यात्म की बातें सच्ची  लगने   लगती  हैं ,मृत्यू  शाश्वत  दिखने  लगती  है 

अशांत  मन  में  योग  शांति  के  बीज  बोता   ह्रदय  को  पुन: कृष्णमय  करता  हैं 

क्या  इसे  हम  स्थाईत्व  नहीं  दे  सकते ? सरकार  की  ज़न कल्याणकारी योजनाओ को गति देने में क्या कृष्णमय मनभावना को उसका आधार नही बनाया जा सकता हैं? 

यदि 'हाँ' तो अभी देर कहाँ हुई है , कृष्ण तो हमें पुकार ही रहे हैं, उनकी मीठी बांसुरी की धुन में खो जाने के लिए |

राधा भी  कही आसपास ही है  , रासलीला का अवसर ढूंढ रही है  , कृष्णमय हो जाने के लिए | 
      

                                 लेखक    डा. वासु देव यादव

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