*पदम श्री मुकुटधर पाण्डेय जी पर शोध पत्र* -----पगडंडियों मे धूप की तपन गांव के जिंदा होने का बोध कवि हृदय में भारत के स्पंदन का प्रमाण देती है। छायावादी काव्य के जनक के समक्ष यदि कलम नतमस्तक है तो छायावादी आलेख/शोध के माध्यम से उन्हें सम्मान देना उनके प्रति सच्चे श्रद्धा सुमन अर्पित करने का उचित दृष्टिकोण निशचित रूप से सर्वमान्य होगा। उनके छायावादी काव्य का उदगम स्थली"कुररी के प्रति" मे विदेशी विहग की पीड़ा को आत्मसात कर बाल्यकाल मे पितृवियोग के दंश को महसूस कर खुद के मन के भटकाव को शायद विदेशी विहंग मे चित्रित करने का एक सफल प्रयास कर अपने मन को सान्तवना देने के प्रयत्न मे.....विहंग को उनकी मंजिल चिन्हित करने को कहते है यानी अपरोक्ष रुप से खुद को ही ताकीद करते है की' मन मरीचिका तू अब ठहर जरा,छाव मे सुस्ता ले और एक लक्ष्य को चिन्हित कर छायावादी वट वृक्ष के तले पथिल को विश्राम दे।'
पदम श्री पं मुकुटधर पांडेय की उनकी पदम श्री तक की अनपरत यात्रा मे किसान के विशाल आस्तित्व मे उनकी शहर के प्रति वितृष्णा,धान की बालियों मे बसती किसान की आत्मा, विहंग की विह्वलता मे उनके मन का विचलित हो जाना, किसान की मन:स्थिति की सरलता को इतनी सादगी से पाठक के मन मस्तिष्क मे रोपित कर देना एवं "कौन है कवि मे" समाज के धड़कन मे कवि मन की उपस्थिति को स्पष्टत: साबित कर देना साहित्य के प्रति उनकी गहरी आस्था को प्रतिपादित करती है।
आस्था जो विज्ञान की समझ से परे है।इसे हम ऐसे समझ सकते है कि विज्ञान अभी आस्था के अभ्युदय स्थल तक नही पहुची है किंतु दिल को सुकून हे कि विज्ञान सतत इस ओर अग्रसर है।
आस्था विज्ञान के सामानांतर चलने वाली विकिरण की वह प्रक्रिया है जिससे आप सीधे यानी कवि मन अपनी आराध्य 'माँ सरस्वती' से संवाद स्थापित करने मे खुद को सफल पाते है।
आस्था लेशमात्र भी संशय नही माँगती है। क्षप्णिक संशय चाहे वह माइको सेकंड का ही क्यों न हो, आस्था की विकिरण वही बाधित हो जाती है औऱ माँ सरस्वती से प्रत्यक्ष संवाद की अनुभूतिया अवरुद्ध हो जाती हैं।
पं मुकुटधर पांडेय जी की साहित्य के प्रति, छायावाद के प्रति उनकी आस्था दिन प्रतिदिन समयांतराल मे अटूट होती चली गयी, उन्हें अपनी हर रचना मे पिता की वात्सल्यपूर्ण भाव भंगिमाएं स्पष्ट महसूस होती गयी और वे रसास्वादन के अथाह समुद्र की गहराइयो मे आकंठ तक डूबते चले गये पितृ प्रेम मे अनवरत चलती उनकी यह अनन्त यात्रा अनंतत: एक दिन पदम श्री के रुप मे फलित हुई।
पं मुकुटधर पांडेय जी की रचना एक भगीरथी प्रयास के फलीभूत, प्रवाहित गंगा की पवित्र धारा है जो अपनी विधा रचती है और स्वयं उसे स्थापित करने का माददा भी रखती है और अपनी संस्कृति में बंधे विश्व को भी प्रभावित करने की क्षमता रखती है। वह किसी का अनुकरण नहीं करती है बल्कि अपनी डगर खुद तलाशती है। उनका सब कुछ अपना है वह आहिस्ता--आहिस्ता विश्व साहित्य की ओर अपना कदम बढ़ाती है पर अपनी जमीन नही छोड़ती है और पॉव--पॉव चल नजर आसमान में केंद्रित कर देती है। वे लोक परंम्परा, विधि, रीति--निति वैचारिक गति में भारतीय जीवन के उत्सर्ग की बुनियाद है इस विश्वास को दृढ़ करती है।
पांडेय जी अपनी रचनाओं के विच्छेदन में पाठकों के भावलोक व विचारलोक का अनुसंधान करते है फिर सप्ततारे सी आकर्षक व्यवस्थित कतार में उनकी शल्य क्रिया करते है।पांडेय जी की स्वतंत्र साहित्यक क्षमता है जिससे आज पूरा साहित्य जगत उनके सामने नतमस्तक है।छायावादी लेखन से सांस्कृतिक पर्यावरण की निष्कलुष उपस्थितिक धरा के प्रति उनकी सशक्त सैद्धातिनक यात्रा में एक नींव के पत्थर का काम करती है। शाब्दिक आनुष्ठान तो जैसे उनकी रंग--रंग में समाया हुआ है। अभ्योतर शुचिता बाह्य शुचिता से उत्तम है ।इनकी रचनाओं में तीर्थ आध्यात्मिकता का आभास तो बरबस ही मन को आलोकित सा कर कर देता है।प्रत्येक शब्द के शाब्दिक अर्थ उसके परिवेश की अपनी समझ आती है किन्तु मुकुटधर जी के शब्द निष्कलंक दूधिया रंग के साथ उनके अन्त:करण के महानिवास मे विस्तारिक वैचारिक क्रान्ति की मशाल लिए मानो वात्सल्य का पुट देती जनमानस को हिलोरे देती सजग सी करती प्रतीत होती है।यहाँ उनका आग्रह नही बल्कि रचना के प्रति उनकी उदारता सारे दर्शन मतों को एकसूत्र में अक्षुणता बनाए रखने में सफल होकर विरोधी को चकित ही करती है।
छायावादी लेख को यह श्रेय साहित्य समाज ने ही प्रदत्त किया है कि आज विषाक्त़ता से मुक्त वह शुद्ध हिन्दुस्तानी धरा पर स्थित होकर अपनी अस्मिता की बात करता है।उनकी छायावादी रचनाओं में सृष्टि का स्वरुप जिस प्रमाणिकता के साथ मन को आंदोलित करता है वह साहित्य के नये स्वाद का अनुभव देता है और आश्चर्य की इसमें सभी एकमत है। यही कारण है कि जीवन के संघर्ष के थकान के उपरांत भी इनकी रचना ठंड़ी छाँव का आभास देती अपने छाँव तले साहित्यिक पथिक को थोड़ा सुस्ताने का अवसर देती है और पथिक भी इनके आकर्षण मे थोड़ा सुस्ताने का लोभ संवरण नही कर पाता है।
साहित्य के दायित्य निर्वाह में मुकुटधर जी किंचित मात्र भी उहापोह की स्थिति में नही रहे। अपने लेखन कर्म में वह भीष्म पितामह की तरह अडिग व युधिष्ठिर की तरह अपने अग्निपथ पर अटल रहे। 1918से छायावादी शैली लोकप्रिय हो चुकी थी। इस शैली के सम्बन्ध में जब 1920 में "श्री शारदा"' नामक पत्रिका जो जबलपुर से निकलती थी, में लेखमाला के रुप में प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तब इन पर राष्ट्व्यापी चिंतन, मनन, अध्य्यन और अंत में विचार विमर्श के उपरान्त इस शैली ने अपना सम्मानजनक स्थान पाया।अपने नाम के अनुरुप ये छायावाद के मुकुट के रुप में आज भी साहित्यकारों एवं जनमानक के हृदय में विराजमान है।यह इनकी चिरकालिक अक्षुण्ण अवस्था है।कैसे यह शैली द्विवेदी युग के बाद अंकुरित हुई।साहित्य के जानकारों के अनुसार 1918 में , *_जयशंकर* जी द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह "_*झरना*" ही प्रथम छायावादी संग्रह था। इसके पश्चात ही हिन्दि पद्य शैली में बदलाव परिलक्षित होने लगे थे।इस शैली के आधार स्तम्भ ,जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा था। मान्यता है कि इस शैली को परिभाषित करने, इसे निश्चित दिशा देने व इसके नामकरण का श्रेय पं.मुकुटधर पांडेय को जाता है।'श्री शारदा' में प्रकाशित इनकी लेखमाला ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जिसमें इन्होंने अपने लेखमाला का शीर्षक ही'छायावाद रख दिया था। प्रेम के पर्याय के रुप में स्वच्छतावाद को आश्चरवाद के रुप में स्थापित कर अनुभव को चारमत्कर्ष तक ले जाना और मानवतावाद, सौन्दर्यवाद, रहस्यवाद, प्रेम की अकुलाहट की निराशवादिता, मर्मभेदी करुणावादिता की ध्वनि जो ममत्व, वात्सल्य को समेटती करुणामय होते हुए भी मधुर है। यह जनसाधारण की समझ से बाहर होकर पतली गली से निकल लेती है।
ऐसी बात नही कि छायावादी को विरोध न झेलना पड़ा हो ,जिनके मूल में निराला व उनके अनुयायी थे जो इनका अंग भंग कर " छाया "शब्द का लाभ उठाकर छायावाद की छीछालेदारी कर रहे थे पं. ईश्वरी शरण पाण्डेय जी इनकी लेखमाला के संदर्भ में कहते है कि यह हिन्दि साहित्य की छरोहर है इस संदर्भ में उनकी अन्तरात्मा से बस यही शब्द अनवरत रुप से मुखरित होते रहते थे ------ *"न चाह मूझे मान की, न सम्मान की, न चाह मुझे अभिमान की, अंजलि भर की ही तो मेरी इच्छा है कि बची रहे छायावाद के स्वाभिमान की"* और अपने प्रयास से इसमें सफल भी रहे जो आज वटवृक्ष बनकर साहित्यकारों को ठंडक का एहसास करवाता हुआ उनके शरण में गये प्रायः हर कवि को यह एक मुकाम देने का प्रयास करता है।
पं. मुकुटधर पाण्डेय जी सृजनशीलता अपने पिता श्री स्व. चिंतामणि पाण्डेय व दादा श्री स्व.सालिगराम पाण्डे जी से धरोहर के रुप में मिली थी जिसे ये अवने अग्रज के सानिध्य में बड़ी तन्मयता से आगे बढ़ा रहे थे। वहीं माता श्रीमती देवहुति के आध्यात्मिक संस्कार इन्हें इनके पथ निरन्तर संबल प्रदान कर रहे थे।
90 वर्ष की आयु में उनका निधन6 नवम्बर को रायपुर में लम्बी बीमारी के बाद हुआ। उन्हीं दिनों के किसी क्षण में अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा था कि *'हे महानदी तू अपनी ममतामयी गोद में मुझको अंतिम विश्राम देना, तब मैं मृत्यु पर्व का भरपूर सुख लुटूँगा*।
पं. मुकुटधर पांडेय जी ने 1915 में प्रयाग विश्वविद्यालय से प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण कर महाविद्यालय में दाखिला ले तो लिया था पर महामारी फैलने की परिस्थितियों के कारण वे आगे नही पढ़ पाये किन्तु हिन्दि, अरबी, बंगला, उड़िया का चिंतन मनन, अध्ययन घर पर ही रह कर किया और एक सम्मानजनक मुकाम हासिल किया। उनकी पहली कविता संग्रह थी *"पूजा के फूल"*जो आगरा से स्वदेश बांधव में 1919 में प्रकाशित हुई थी। हिंदी गद्य के साथ--साथ हिंदी पद्य में भी इनकी पकड़ मजबूत थी इसी से प्रभावित होकर पं. रवि शंकर विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें डी. लिट की उपाधि भी प्रदान की गयी थी।इनके काव्य में करुणाजनित प्रकृति सौंदर्य के मानवीय प्रेम में गीतात्मकता की प्राधानता रही है जो छायावाद के कल्पना वैभव की प्रथम भव्य द्वार के रुप में सुशोभित है।
पं. मुकुटधर पांडेय जी का जन्म बिलासपुर जिले के घनी अमराइयों में झाँकते ग्राम बालपुर में सन् 1895 में हुआ था जहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त की अनुपम छटा शायद शैशवकाल से ही उन्हें साहित्य की ओर प्रेरित करती रही। द्विवेदी युग में अनुवादक के रुप में उन्होंने अपनी छवि बनाई थी। विशेषकर बंग्ला रचनाएँ। *"कुररी के प्रति'* के बाद *'विश्वबोध'* नाम से उनकी कविता ने उनकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए इससे कोई इंकार नही कर सकता। अवसाद के क्षणो में भी वे ईश्वर के चरण प्रसाद को महसूस करते हुए लिखते है कि *"यह मेरा आत्यमिक अवसाद?* *हुआ मुझे तब चरण प्रसाद। यह प्रभाव कितना अविवाद? आती ठीक नही है याद।"* कविता के सन्दर्भ में उनके सटीक वक़्तव्य तो और कोई दे नही सकता था।उनके शब्दों में कविता नश्वर जीवन का उल्लास।। मृत्यु को कितनी सरलता से उन्होंने उल्लास से अलंकृत कर दिया । यह चमत्कार तो उनकी ही लेखनी कर सकती है । छायावादी लेखन ने हिन्दी में खड़ी बोली कविता को पूर्णरुप से स्थापित कर दिया।इसके बाद से ही ब्रज भाषा हिन्दी काव्य धारा से बाहर हो गई थी।इसने हिन्दी को नये--नये वाक्यों से सुशोभित किया, नये तरीके से साहित्य को प्रतिबिंबित किया, जब इनके छायावाद का कोई साहित्यकार गम्भीरता से अवलोकन करता है तो उनके दिल से एक ही बात निकलती है कि *भावनाएँ आपकी बेमोल है, स्याही की लकीरें अनमोल है, बसे रहें जनमानस के दिल में, साहित्य के लिए नही आप शेष है।* यह उनके स्वतंत्र सोच का ही प्रतिफल था कि इसे साहित्यिक खड़ी बोली का स्वर्णयुग कहा जाने लगा।
छायावादी कविता द्वेवेदी युग की नीरस, उपदेशात्मक कविता का विद्रोह करते हुए कल्पना प्रधान, भावनात्मक कविताएँ रची गयी। इनकी कविता नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि' से स्पष्टत: प्रभावित सी लगती थी, साथ ही इनकी भावनायें प्राचीन संस्कृत साहित्य, मध्यकालीन हिन्दी साहित्य जिसमें बौध्द दर्शन व सूफी दर्शन के पुट को साफ--साफ महसूस1किया जा सकता है।
गीत काव्य के बाद छायावाद में भी महाकाव्य का अभ्युदय हुआ। प्रसाद जी की कामायनी व पंत जी की लोकायतन इनका प्रमाण है।यदि हम उनके आलोचको पर दृष्टि डालें तो मैथिली शरण गुप्त जी ने खड़ी बोली काव्य को कल्पना की पराकाष्ठा कहा है तो *नंद दुलारे बाजपेयी जी* ने प्रकृति के सूक्ष्म व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का मान उनके विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिये थी। *नामवर सिंह* लिखते है कि छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रुढ़ियों से मुक्ति चाहता था ओर दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से किन्तु इसे मेरी व्यक्तिगत राय में आलोचना की श्रेणी में रखना गलत होगा।अपनी सांस्कृतिक परंपरा को समेटे हुए अंतर्राष्ट्रीय होने का यह सुखद1अनुभव काश आज मुकुटधर पांडेय जी साक्षात स्वमेव अपने रोम--रोम में एहसास कर पुलकित हो पाते तो निश्चित रुप से उनका आल्हादित मन मयूर उनकी सांस्कृतिक माँ के चारणों में लोट--पोट हो जाता। अपने अग्रजों के कदम कदम पर उनका स्नेहिल स्वावलंबन की कृतज्ञता प्रकट करने उनके अंग लिपट कर उनकी छाती को अपने खुशी के आँसुओं से सराबोर कर देता, खुशी से विह्वल मन पिताजी की स्नेही छाया महसूस कर छायावाद के रसस्वादन में पुनः नये कीर्तिमान रचने को दृड संकल्पित हो जाता, पर आज उनके गाँव की अमराइयों में निस्तब्धता छायी है, हवा मनो कहीं छुप कर खड़ी है, वातावरण एकदम शांत है मानो एहसास करा रही हो कि *हे कलम तू अपनी लेखनी के आवेग को थोड़ा विराम दे और धरातल पर लौट कर पंडित जी के संदर्भ में कुछ अन्य साथर्क बातें उनके प्रशंसकों से साझा कर।* अपनी कलम होने की गौरव1गाथा को महिमा मंडित कर ले।जीवन के संघर्स के साथ--साथ सत्य का दामन अपनी मुठ्ठी में जकड़ कर रखना। शाब्दिक अनुष्ठान के यज्ञ की पूर्णाहुति कर समाज की कलुषित धारा को गंगा की पवित्र धारा मे परिवर्तित करने का साहस दिया और 'छायावादी' का परचम लहरा कर खड़ी बोलि में जन--जन की अँगुलियों में थिरकन पैदा कर दे ताकि वे तुम्हारी संगत में रह कर छायावादी रचना की एक नई अमराईयां अंकुरित करने का जज्बा नूतन साहित्यकारों में पैदा कर सकें।
समाप्त
Copyright
नोट --- यह मेरा मौलिक शोध पत्र है। डॉ. वासुदेव यादव
(आयुर्वेदज्ञ)
ग्राम -- डोमनारा , पो. फरकानारा
तहसील-- खरसिया, जिला--रायगढ़
पिन -- 496665
छत्तीसगढ़
मो. न. 8815041022